सुबह के चार बज रहे हैं – महुआ का महीना – जब जंगलों में रात-दिन महुआ
बीनने (चुनने) वालों का मेला लगा है। सिंगरौली के महान जंगल में भी आसपास
के जंगलवासी अपने पूरे परिवार के साथ महुआ बीन रहे हैं। परिवार के बड़े
भी, बूढे भी, बच्चे भी, महिलायें और किशोर भी।
जंगल में चारों तरफ महुआ की महक बिखरी हुई है। हालांकि महुआ इसबार कम
गिरा है। ऐसा लगता है कि महुआ के ये पेड़ भी कंपनी के आने की खबर सुनकर
निराश हो गए हैं। आदमी और पेड़ के बीच के इस खूबसूरत संबंध को न तो कंपनी
के लोग समझेंगे और न ही कंपनी को जंगल सौंपने वाली सरकार। दरअसल महान
जंगल को सरकार ने महान कोल लिमिटेड (एस्सार व हिंडाल्को का संयुक्त
उपक्रम) को कोयला खदान के लिए दे दिया था। लेकिन कोयला घोटाले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद फिलहाल इसे आंवटन लिस्ट से हटा लिया गया है। महान जंगल। जिसमें करीब पांच
लाख पेड़, 164 प्रजातियां और 54 गांवों के लोगों की जीविका का वास है।
पास ही एक पेड़ के नीचे एक ढिबरी की रौशनी में कुछ गांव वाले गीत गा रहे
हैं। गीत और महुआ की महक ने मिलकर माहौल को मादक बना दिया है-
महुआ बीने दोहर होये जाय,
परदेशी के बोली नोहर होये जाय।
ये बोल हैं उधवा के। उधवा एक लोकगीत है। गीत में गांव वालों का महुआ के
साथ संबंध है, महुआ बीनते-बीनते पैदा हुआ प्यार है। गीत में थोड़ी सी
खुशी है, थोड़ा सा गम। खुशी इस बात की कि बड़ी संख्या में महुआ इकट्ठा हो
गया है। दुख इस बात का कि महुआ बीनते-बीनते जिस परदेशी से लगाव हो गया था
वो अब बिछड़ जायेगा। उसकी आवाज सुनने को नहीं मिलेगी। आसपास के कई गांव
के लोग महुआ बीनने जंगल पहुंचते हैं। महिलाएँ भी और पुरुष भी। इस बीच
अलग-अलग गांव के लोगों के बीच आपसी रिश्ता भी गहराता है। थोड़ी सी
हिचकिचाहट, थोड़ी सी हंसी-ठिठोली का विस्तार प्यार के खूबसूरत रिश्ते तक
पहुंच जाता है। उसी प्यारे से रिश्ते को शब्दों में पिरो कर यह गीत गाया
जा रहा है।
जंगल का यह समूचा दृश्य इतना सजीव और साफ है। इतना जिन्दा, इतना संपूर्ण
और शाश्वत कि एक पल को यह यकीन नहीं होता कि अगर कंपनी जंगल में कोयला
खदान खोलने में सफल हो जाती तो आने वाले सालों में सबकुछ मटियामेट हो
जाता। महुआ, डोर, तेंदू, साल के पत्तों का हरापन, झोपड़ी, लोगों के
भावुक रिश्तों को समेट गाए जाने वाले गीत- सबकुछ एक गंदे औद्योगिक कचरे,
कोयले से भरी धूल में दब कर रह जाता। और ये हंसते-गाते, महुआ बीनते
जंगलवासी जबलपुर, भोपाल, वैढ़न के किसी सड़क के किनारे मजदूरी करते नजर
आते। राजधानी दिल्ली के बंद कमरे में फैसले लेने वाली सरकार और कंपनी
शायद ही इस बात को समझे कि इस विकास के शोर में सिर्फ एक मनुष्य ही नहीं
विस्थापित होता बल्कि उसके साथ उसका पूरा हंसता-खेलता परिवेश, जीने का
ढंग भी उजड़ने को मजबूर होता है।
आदिवासी समुदाय संकोची होता है। गांवों में हँसी-मजाक और गाना गाने में
संकोच करने वाला। लेकिन जब यही लोग जंगल में होते हैं तो गाते हैं और खूब
गाते हैं। महिलायें गाती हैं, पुरुष गाते हैं – दोनों मिलकर गाते हैं।
उधवा में दो टोली होते हैं, अलग-अलग महुआ के नीचे। एक पहले गाता है तो
दूसरा उसके सुर में साथ मिलाता है।
महुआ में बहुत कुछ है। लता, महुआ रोटी, रसपुटक्का, महुआरस के सेवई का
मिठास है। कुची के साथ आने वाली महक है, महुआ का फुल है, अषाढ़ (जूलाई)
में महुआ के फल (डोरी) से निकलने वाला तेल है। तेल जो खाना पकाने में काम
आता है, तेल जो बेहद मुलायम होता है। बुधेर गांव के रामलल्लू खैरवार
बताते हैं कि, “ठंड में शहरी लोग क्रीम लगाते हैं और हम डोरी का तेल। पैर
फटने से लेकर चेहरे तक। महुआ सिर्फ हमारी आर्थिक जरुरत पूरी नहीं करता
बल्कि हमारे शरीर का भी ख्याल रखता है”।
जंगल में सिर्फ महुआ नहीं बीना जाता। आपस में संबंध बेहतर किया जाता है।
अपने-अपने परिवार के साथ रात-दिन जंगल में जमे लोग आपस में बातें करते
हैं, लिट्टी बनाकर बांटते हैं, एक-दूसरे का हाल जानते हैं, अपने
छोटे-छोटे बच्चों को महुआ बीनना सीखाते हैं, जंगल से बच्चों की पहचान
करायी जाती है। ये साल का पेड़ है, ये महुआ और ये तेंदू का बताया जाता
है।
जंगल में अपने छोटे नाती के साथ महुआ चुन रहे दीपचंद समझाते हैं, “हमको
हमारे पिता जी लेकर आते थे जंगल, हम अपने बेटे को लेकर आए और अब हमारा
बेटा अपने बेटे को लेकर आता है। इस तरह हमने जंगल की हमारी जानकारी सहेजी
है। ये जानकारी कहीं लिखित में भले नहीं हो लेकिन पीढ़ियों से ये हमें
ऐसे ही मिलता आया है। महुआ चुनने के साथ-साथ बच्चों को जंगल में
जाने-रहने और जानवरों-पौधों से किस तरह का व्यवहार करना है भी सीखाया
जाता है”।
जंगल में ही एक जंगलवासी के मन का गांठ खुलता है। उसका मन गाता है-
पत्ती त बराय बराय
पतरईली सिटी मारय, डेराय-डेराय।
गीत का अर्थ है तेंदू का पत्ता तो बहुत बड़ा और बहुत अच्छा हुआ है लेकिन
इस खुशी के बावजूद पतली लड़की अभी भी गाना डर-डर कर, संकोच से ही गा रही
है। इस गाने में अश्लीलता नहीं है, लाज है, संकोच है, थोड़ी सी छेड़-छाड़
और बहुत-सा प्यार है।
महुआ जंगलवासियों के बीच रचा-बसा है। महुआ-जंगल-जंगलवासी – एक दूसरे पर
निर्भर। एक दूसरे का ख्याल रखते, एक दूसरे से प्यार करते- इनका जीवन चला
आ रहा है सदियों से। महुआ और जंगल के आसपास ही जंगलवासियों की पूरी
संस्कृति विकसित हुई है, परंपरागत जीवनशैली का विकास हुआ है। इसलिए इनके
गानों में, त्योहारों में, हंसी-ठिठोली में आसानी से महुए की महक महसूस
होती है।